Sunday 16 December 2012

सर्व प्रथम राष्ट्रपति डा, राजेंद्र प्रसाद

 आज आप सबको मै अपने देश के प्रथम राष्ट्र पति जी के विषय मे कुछ जानकारी देती हूँ ।




डा. राजेंद्र प्रसाद
डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद  भारत के प्रथम राष्ट्रपति थे। वे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से थे एवं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में एक प्रमुख भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय संविधान के निर्माण में भी अपना प्रमुख योगदान दिया था जिसकी परिणति २६ जनवरी १९५० को भारत के एक गणतंत्र के रुप में हुई थी। राष्ट्रपति होने के अतिरिक्त उन्होंने स्वाधीन भारत में केन्द्रीय मंत्री के रुप में भी थोड़े समय के लिए काम किया था। पूरे देश में अत्यंत लोकप्रिय होने के कारण उन्हें राजेन्द्र बाबू या "देशरत्न" कहकर पुकारा जाता था। पूर्वज बाबू राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वज मूलरूप से कुआँगांव, अमोढ़ा (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। यह एक कायस्थ परिवार था। कुछ कायस्थ परिवार इस स्थान को छोड़ कर बलिया जा बसे थे। कुछ परिवारों को बलिया भी रास नहीं आया, वे वहां से बिहार के जिला सारन के एक गांव जीरादेई में आ बसे थे। इन परिवारों में कुछ शिक्षित लोग भी थे। इन्हीं परिवारों में राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वजों का भी परिवार भी था। जीरादेई के पास ही एक छोटी सी रियासत थी - हथुआ। चूंकि राजेन्द्र बाबू के दादा पढ़े-लिखे थे, अतः उन्हें हथुआ रियासत की दीवानी मिल गई पच्चीस-तीस सालों तक वे उस रियासत के दीवान रहे। उन्होंने स्वयं भी कुछ जमीन खरीद ली थी। राजेन्द्र बाबू के पिता श्री महादेव सहाय इस जमींदारी की देखभाल करते थे। राजेन्द्र प्रसाद जी के चाचा श्री जगदेव सहाय भी घर पर ही रहकर जमींदारी का काम देखते थे। जगदेव सहाय जी की अपनी कोई संतान नहीं थी। अपने पांच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे, इसलिए पूरे परिवार में सबके प्यारे थे।
उनके चाचा के चूंकि कोई संतान नहीं थी, इसलिए वे राजेन्द्र प्रसाद को अपने पुत्र की भांति ही समझते थे। दादा, पिता और चाचा के लाड़-प्यार में ही राजेन्द्र बाबू का पालन-पोषण हुआ। दादी और माँ का भी उन पर पूर्ण प्रेम बरसता था।

बचपन में राजेन्द्र बाबू जल्दी सो जाते थे और सुबह जल्दी उठ जाते, तो मां को भी जगा लिया करते और फिर उन्हें सोने नहीं देते। अतः मां भी उन्हें प्रभाती सुनाती, रामायण और महाभारत की कहानियां और भजन, कीर्तन आदि सुनातीं। 
राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे, एवं उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थी।पाँच वर्ष की उम्र में ही राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से फारसी में शिक्षा शुरू किया। उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए। राजेंद्र बाबू का विवाह उस समय की परिपाटी के अनुसार बाल्य काल में ही, लगभग 13 वर्ष की उम्र में, राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने पटना के टी के घोष अकादमी से अपनी पढाई जारी रखी। उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी रहा और उससे उनके अध्ययन अथवा अन्य कार्यों में कोई रुकावट नहीं पड़ी।
लेकिन वे जल्द ही जिला स्कूल छपरा चले गये और वहीं से 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी। उस प्रवेश परीक्षा में उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। सन् 1902 में उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उनकी प्रतिभा ने गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार-विभूति डॉक्टर अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ विधि परास्नातक (एलएलएम) की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्टरेट की उपाधि भी हासिल की। राजेन्द्र बाबू कानून की अपनी पढाई का अभ्यास भागलपुर, बिहार मे किया करते थे।
 यद्यपि राजेंद्र बाबू की पढ़ाई फारसी और उर्दू से शुरु हुई थी तथापि वी. ए. में उन्होंने हिंदी ले ली थी। वे अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, फ़ारसी तथा बंगाली भाषा और साहित्य से पूरे परिचित तथा इन भाषाओं में वे सरलता से प्रभावकारी व्याख्यान भी दे सकते थे। गुजराती का व्यावहारिक ज्ञान भी उन्हें था। एम. एल. परीक्षा के लिए हिंदू कानून का उन्होंने संस्कृत ग्रंथों से ही अध्ययन किया था। हिंदी के प्रति उनका प्रेम अगाध था। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं जैसे भारतमित्र, भारतोदय, कमला आदि में उनके लेख छपते थे। उनके निबंध सुरुचिपूर्ण तथा प्रभावकारी होते थे। 1912 ई. में जब अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन कलकत्ते में हुआ था तब स्वागतकारिणी समिति के वे प्रधान मंत्री थे। 1920 ई. में जब अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का 10वाँ अधिवेशन पटने में हुआ था तब भी वे प्रधान मंत्री थे। 1923 ई. में जब सम्मेलन का अधिवेशन कोकोनाडा में होने वाला था तब वे उसके अध्यक्ष मनोनीत हुए थे पर रुग्णता के कारण वे उसमें उपस्थित न हो से। उनका भाषण श्री जमनालाल बजाज ने पढ़ा था। 1926 ई. में वे बिहार प्रदेशीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के और 1927 ई. में उत्तर प्रदेशीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति थे। हिंदी में इनकी आत्मकथा बड़ी प्रसिद्ध पुस्तक है। अंग्रेजी में भी इन्होंने कुछ पुस्तकें लिखी हैं। इन्होंने हिंदी के 'देश' और अंग्रेजी के 'पटना लॉ वीकली' का भी संपादन किया था।
 स्वतंत्रता आंदोलन के दौरानभारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनका पदार्पण वक़ील के रूप में अपने कैरियर की शुरुआत करते ही हो गया था। चम्पारण में गाँधीजी ने एक तथ्य अन्वेषण समूह भेजे जाते समय उनसे अपने स्वयंसेवकों के साथ आने का अनुरोध किया था। राजेन्द्र बाबू महात्मा गाँधी की निष्ठा, समर्पण एवं साहस से बहुत प्रभावित हुए और 1921 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेटर का पदत्याग कर दिया। गाँधीजी ने जब विदेशी संस्थाओं के बहिष्कार की अपील की थी तो उन्होंने अपने पुत्र मृत्युंजय प्रसाद, जो एक अत्यंत मेधावी छात्र थे, उन्हें कोलकाता विश्वविद्यालय से हटाकर बिहार विद्यापीठ में दाखिल करवाया था। उन्होंने "सर्चलाईट" और "देश" जैसी पत्रिकाओं में इस विषय पर बहुत से लेख लिखे थे और इन अखबारों के लिए अक्सर वे धन जुटाने का काम भी करते थे। 1914 में बिहार और बंगाल मे आई बाढ में उन्होंने काफी बढचढ कर सेवा-कार्य किया था। बिहार के 1934 के भूकंप के समय राजेन्द्र बाबू कारावास में थे। जेल से दो वर्ष में छूटने के पश्चात वे भूकंप पीड़ितों के लिए धन जुटाने में तन-मन से जुट गये और उन्होंने वायसराय के जुटाये धन-राशि से कहीं अधिक अपने व्यक्तिगत प्रयासों से जमा किया। सिंध और क्वेटा के भूकंप के समय भी उन्होंने कई राहत-शिविरों का इंतजाम अपने हाथों मे लिया था।
1934 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गये। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने पर कांग्रेस अध्यक्ष का पदभार उन्होंने एक बार पुन: 1939 में संभाला था।
भारत के स्वतंत्र होने के बाद संविधान लागू होने पर उन्होंने देश के पहले राष्ट्रपति का पदभार संभाला। राष्ट्रपति के तौर पर उन्होंने कभी भी अपने संवैधानिक अधिकारों में प्रधानमंत्री या कांग्रेस को दखलअंदाजी का मौका नहीं दिया और हमेशा स्वतंत्र रूप से कार्य करते रहे। हिंदू अधिनियम पारित करते समय उन्होंने काफी कड़ा रूख अपनाया था। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने कई ऐसे दृष्टांत छोड़े जो बाद में उनके परवर्तियों के लिए मिसाल के तौर पर काम करती रही।
भारतीय संविधान के लागू होने से एक दिन पहले 25 जनवरी 1950 को उनकी बहन भगवती देवी का निधन हो गया, लेकिन वे भारतीय गणराज्य के स्थापना की रस्म के बाद ही दाह संस्कार में भाग लेने गये। 12 वर्षों तक राषट्रपति के रूप में कार्य करने के पश्चात उन्होंने 1962 में अपने अवकाश की घोषणा की। बाद के दिनों में उन्हें भारत सरकार द्वारा दिया जानेवाला सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा गया
राजेंद्र बाबू की वेशभूषा बड़ी सरल थी। उनके चेहरे मोहरे पता नहीं लगता था कि वे इतने प्रतिभासंपन्न और उच्च व्यक्तित्ववाले सज्जन हैं। देखने में वे सामान्य किसान जैसे लगते थे।

जैसा इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डाक्टर ऑव ला की सम्मानित उपाधि प्रदान करते समय कहा गया था- 'बाबू राजेंद्रप्रसाद ने अपने जीवन में सरल, नि:स्वार्थ और निस्व सेवा का ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत किया है। जब वकील के व्यवसाय में चरम उत्कर्ष की उपलब्धि दूर नहीं रह गई थी, इन्हें राष्ट्रीय कार्य के लिए आह्वान मिला और उन्होंने व्यक्तिगत भावी उन्नति की सभी संभावनाओं को त्यागकर गाँवों में गरीबों तथा दीन कृषकों के बीच काम करना स्वीकार किया'। सरोजिनी नायडू ने लिखा था, 'उनकी असाधारण प्रतिभा, उनके स्वभाव का अनोखा माधुर्य, उनके चरित्र की विशालता और अति त्याग के गुण ने शायद उन्हें हमारे सभी नेताओं से अधिक व्यापक और व्यक्तिगत रूप से प्रिय बना दिया है। गाँधी जी के निकटतम शिष्यों में उनका वही स्थान है जो ईसा मसीह के निकट सेंट जॉन का था।'
 सितंबर 1962 में अवकाश ग्रहण करते ही उनकी पत्नी राजवंशी देवी का निधन हो गया। मृत्यु के एक महीने पहले अपने पति को संबोधित पत्र में राजवंशी देवी ने लिखा था, "मुझे लगता है मेरा अंत निकट है, कुछ करने की शक्ति का अंत, संपूर्ण अस्तित्व का अंत". राम, राम, राम शब्दों के उच्चारण के साथ उनका अंत 28 फरवरी 1963 को पटना के सदाक़त आश्रम आश्रम में हुआ।
उनकी वंशावली को जीवित रखने का कार्य उनके परपौत्र अशोक जाहन्वी प्रसाद कर रहे हैं। वे पेशे से एक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त वैज्ञानिक एवं मनोचिकित्सक हैं और उन्होंने बाई-पोलर डिसाऑर्डर की चिकित्सा में लीथियम के सुरक्षित विकल्प के रूप में सोडियम वैलप्रोरेट की खोज की थी। श्री प्रसाद प्रतिष्ठित अमेरिकन अकैडमी ऑफ आर्ट्स ऐंड साईंस के सदस्य भी हैं।
उन्होंने अपनी आत्मकथा (१९४६) के अतिरिक्त कई पुस्तकें भी लिखी जिनमें बापू के कदमों में (१९५४), इंडिया डिवाइडेड (१९४६), सत्याग्रह ऐट चंपारण (१९२२), गांधीजी की देन, भारतीय संस्कृति, खादी का अर्थशास्त्र इत्यादि उल्लेखनीय हैं।
 सन 1962 में अवकाश प्राप्त करने पर राष्ट्र ने उन्हें "भारत रत्‍न" की सर्वश्रेष्ठ उपाधि से सम्मानित किया। यह उस पुत्र के लिये कृतज्ञता का प्रतीक था जिसने अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर आधी शताब्दी तक अपनी मातृभूमि की सेवा की थी।
अपने जीवन के आख़िरी महीने बिताने के लिये उन्होंने पटना के निकट सदाकत आश्रम चुना। यहाँ पर 28 फ़रवरी 1963 में उनके जीवन की कहानी समाप्त हुई। यह कहानी थी श्रेष्ठ भारतीय मूल्यों और परम्परा की चट्टान सदृश्य आदर्शों की। हमको इन पर गर्व है और ये सदा राष्ट्र को प्रेरणा देते रहेंगे।

फिर मिलेंगे अन्य एक और महापुरुष की बात लेकर ।

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