Sunday 30 December 2012

कुछ शब्द बेटियों से

प्यारी प्यारी छोटी एवं बड़ी सभी बेटियों को मेरा ढेर  सा प्यार  ,   कुछ शब्द तुम्हारे लिए ।

      

 तुम रचयिता हो ,तुम ही पालक तुम ही संहारक हो ।

क्यों नहीं है भान तुम्हें कि तुम अग्नि  की  भीषण लपट हो  ,

तुम क्रांति की आख्यायिका और जलती हुई अंगार हो ,

तुम शक्ति की प्रलय का रूप हो  और माँ का अंचल हो ।  

तुम तुम चंचला की द्युति चपल और तीखी प्रखर अधिसार हो ।

क्यों नहीं है भान तुम्हें कि तुम शक्ति का अतुल भंडार हो ,

तुम खौलती जल निधि लहर और गतिमय पवन उनचास हो ।

तुम कालिका का कोप और रुद्र  की  भ्रू -ल्लास हो, 

क्यों नहीं है भान तुम्हें कि तुम ममता  की रसधार  हो ,

तुम सृजन  की अधिष्ठात्री और प्रतिपालनहार हो।

तुम संरक्षक और संवर्धन मंडलाकार हो ,

तुम   त्याग मूर्ति और चिर अमर बलिदान हो ।

क्यों नहीं है भान तुम्हें कि तुम इतिहास और तुम्ही भविष्य रचनाकार हो ।




Thursday 20 December 2012

बिना उद्देश्य जीवन कैसा ! ( कुछ नव युवाओं से )





अन्नपूर्णा का ब्लाग
जीत हमारी है

प्रिय बच्चों पिछले  लेख मे मैंने जीवन मे आगे बढ्ने के लिए धन की उपयोगिता का मर्म समझाया था  कि धन अपने पथ पर अग्रसर होने के लिए कभी रुकावट नहीं होता है यदि आप मे काबिलियत और लगन है तो आप हर वो खुशी  पा सकते है जिसके आप हकदार है । काबिलियत के साथ उद्देश्य भी स्पष्ट होना चाहिए ।
 लक्ष्य रहित जीवन तो बिना पतवार  की नाव की तरह है जिसकी सफलता मे पूर्णतया संदेह है । लक्ष्य की स्थिरता ही कुशल सेना नायक की सफलता का कारण है ।

एक उदाहरण मे यह स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है कि लक्ष्य यदि स्पष्ट है तो आप उसकी प्राप्ति के लिए अथक प्रयास खुद ही करते है और उसे पा कर रहते है ।

 गैलीलियो आरंभ से ही गणित प्रेमी था ,किन्तु उसके पिता उसे डाक्टर बनाना चाहते थे । बालक गैलीलियो पिता की आँखों से बच कर  गणित शास्त्र के अद्ध्यन मे लगा रहा और एक दिन मात्र अट्ठारह वर्ष की आयु मे ही गिरिजाघर मे पेंडुलम का सिद्धान्त का आविष्कार किया । आगे चल कर दूरबीन की रचना कर विज्ञान जगत को एक नई दिशा दी । यदि  वह अपने निर्धारित लक्ष्य पर नहीं चलता तो वह कभी सफल नहीं होता ।

डिमस्थनीज की कहानी तो इससे भी ज्यादा रोचक है वह तो एक कुशल वक्ता बनना चाहता था लेकिन वह तुतला कर बोलता था ऐसे मे प्रख्यात वक्ता होना दूर की बात थी । लोग उसके इस लक्ष्य के विषय मे जानकार उसका मज़ाक उडाते थे , लेकिन उसका लक्ष्य स्पष्ट था उसे कुशल वक्ता बनना ही था इसके लिए उसने बड़ी मेहनत की । वह अपने मुंह मे ककड़ियाँ भरकर बोलने का प्रयास करता था और एक दिन वह अपने लक्ष्य मे सफल हुआ ।

माइकेल एंजेलो की कहानी भी गैलीलियो की तरह ही है । वह चित्र कला का प्रेमी था उसके पिता भी उसकी चित्रा कला के खिलाफ थे लेकिन उसकी लगन ने उसे विश्व प्रसिद्ध चित्र कार बना दिया।

यही सच है कि प्रत्येक व्यक्ति मे राष्ट्र निर्माता होने की शक्ति छुपी हुई है परंतु लक्ष्य निर्धारण के बिना सफलता संभव नहीं है ।

आज मै अक्सर देखती हूँ कि युवाओं के भटकते कदम उन्हे भटकाव की ओर ही ले जाते है ।

Wednesday 19 December 2012

नव युवाओं से





प्यारे बच्चों इससे पहले भी मैंने कई बाते बताई है उम्मीद है तुम सब कुछ लाभ अवश्य उठा रहे होगे , मुझे बड़ी खुशी होगी यदि मै तुम मे से किसी एक को भी लाभान्वित करा पाने मे सक्षम रहती हूँ  ।

इतिहास इस बात का साक्षी है की जो कर्मवीर अपने पथ पर बढ़ता गया है ,जिसने विपदाओं का सामना किया है , संकट की ऊंची घाटियों को लांघने का प्रयास किया है , उसे ही ऊंचे से ऊंचा यश और सम्मान मिला है । तुम्हारी  मंजिल  मे निर्धनता ही सबसे पहली रुकावट है , जिसके नीचे सारा भारत कराह रहा है ; किन्तु क्या यह निर्धनता तुम्हारा मार्ग रोक सकेगी ? कदापि नहीं । अगर तुम्हारा मनोबल  दृढ़  है , अगर तुम्हारा साहस प्रबल है ,तो कोई बाधा तुम्हारे सामने टिक नहीं सकती । तुम्हें राह बताने के लिए अनेकों उदाहरण भरे पड़े है , जिनकी रह पर चल कर तुम भी अपने लक्ष्य को पा सकते हो और महान बन सकते हो ।

प्रसिद्ध अङ्ग्रेज़ी साहित्यकार गोल्ड स्मिथ कभी पैसे पैसे का मोहताज था और भिक्षाटन के द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता था , किन्तु उसका मनोबल और मस्तिष्क भिक्षुक नहीं था । अपनी साधना मे वह लगा रहा और एक दिन निर्धनता उसका मार्ग रोक नहीं पाई और वह एक महान साहित्यकार के रूप मे विख्यात हुआ ।

महान फर्गुसन एक गडेरिए का पुत्र था और बड़ी ही गरीबी के साथ जीवन यापन करता था । आगे चल कर वही फर्गुसन आकाश मे तारों की दूरी नाप सकने मे सफल निकला ।

आर्कराइट लोगों की हजामत बना कर अपना जीवन यापन करता था जो आगे चल कर रेल का आविष्कर्ता सिद्ध हुआ ।
शेक्सपियर , जिस  पर अङ्ग्रेज़ी साहित्य को नाज है , कभी दर दर मारा फिरता था , किन्तु अपनी लगन और कर्तव्यनिष्ठा के कारण ही उसकी गणना यूरोप के सर्व श्रेष्ठ कवि एवं नाटक कार के रूप मे हुई ।
 
 यही नहीं अपने देश मे भी  कई ऐसी हस्तियाँ हुई है जिन्होने ये साबित कर दिखाया है की निर्धनता कभी भी कर्मवीरों का रास्ता नहीं रोक सकी है । लाल बहादुर शास्त्री जी,  राजेंद्र प्रसाद जी , बाल गंगाधर तिलक जी  का  नाम हम प्रमुखता से ले सकते है ।

इसलिए बच्चों याद रखो निर्धनता किसी का भी रास्ता नहीं रोक सकती बस लगन और लालसा बलवती  होनी चाहिए ।  अगली प्रस्तुति मे बात करेंगे लक्ष्य की ।

Monday 17 December 2012

सर्व पल्ली डा, राधाकृष्णन



डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारत के प्रथम उप-राष्ट्रपति (१९५२ - १९६२) और द्वितीय राष्ट्रपति रहे। उनका जन्म दक्षिण भारत के तिरुत्तनि स्थान में हुआ था जो चेन्नई से ६४ किमी उत्तर-पूर्व में है। उनका जन्मदिन (५ सितम्बर १८८८) भारत में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।
राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के संवाहक, प्रख्यात शिक्षाविद, महान दार्शनिक और एक आस्थावान हिन्दू विचारक थे। उनके इन्हीं गुणों के कारण सन् १९५४ में भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से अलंकृत किया था। सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय सामाजिक संस्कृति से ओतप्रोत एक प्रख्यात शिक्षाविद, महान दार्शनिक, उत्कृष्ट वक्ता और एक आस्थावान हिन्दू विचारक थे। वे स्वतन्त्र भारत के दूसरे राष्ट्रपति थे। इससे पूर्व वे उपराष्ट्रपति भी रहे। राजनीति में आने से पूर्व उन्होंने अपने जीवन के महत्वपूर्ण ४० वर्ष शिक्षक के रूप में व्यतीत किये थे। उनमें एक आदर्श शिक्षक के सारे गुण मौजूद थे। उन्होंने अपना जन्म दिन अपने व्यक्तिगत नाम से नहीं अपितु सम्पूर्ण शिक्षक बिरादरी को सम्मानित किये जाने के उद्देश्य से शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की इच्छा व्यक्त की थी जिसके परिणामस्वरूप आज भी सारे देश में उनका जन्म दिन (5 सितम्बर) को प्रति वर्ष शिक्षक दिवस के नाम से ही मनाया जाता है। इन दिनों जब शिक्षा की गुणात्मकता का ह्रास होता जा रहा है और गुरु-शिष्य सम्बन्धों की पवित्रता को ग्रहण लगता जा रहा है, उनका पुण्य स्मरण फिर एक नयी चेतना पैदा कर सकता है। सन्‌ 1962 में जब वे राष्ट्रपति बने थे, तब कुछ शिष्य और प्रशंसक उनके पास गये और उन्होँने उनसे निवेदन किया कि वे उनके जन्म दिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाना चाहते हैं। उन्होंने कहा- "मेरे जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने से निश्चय ही मैं अपने को गौरवान्वित अनुभव करूँगा।" तबसे आज तक 5 सितम्बर सारे देश में उनका जन्म दिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जा रहा है।

शिक्षा के क्षेत्र में डॉ. राधाकृष्णन ने जो अमूल्य योगदान दिया वह निश्चय ही अविस्मरणीय रहेगा। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। यद्यपि वे एक जाने-माने विद्वान, शिक्षक, वक्ता, प्रशासक, राजनयिक, देशभक्त और शिक्षा शास्त्री थे, तथापि अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में अनेक उच्च पदों पर काम करते हुए भी वे शिक्षा के क्षेत्र में सतत योगदान करते रहे। उनकी मान्यता थी कि यदि सही तरीके से शिक्षा दी जाये तो समाज की अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है।

डॉ० राधाकृष्णन कहा करते थे कि मात्र जानकारियाँ देना शिक्षा नहीं है। यद्यपि जानकारी का अपना महत्व है और आधुनिक युग में तकनीक की जानकारी महत्वपूर्ण भी है तथापि व्यक्ति के बौद्धिक झुकाव और उसकी लोकतान्त्रिक भावना का भी बड़ा महत्व है। ये बातें व्यक्ति को एक उत्तरदायी नागरिक बनाती हैं। शिक्षा का लक्ष्य है ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना और निरन्तर सीखते रहने की प्रवृत्ति। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को ज्ञान और कौशल दोनों प्रदान करती है तथा इनका जीवन में उपयोग करने का मार्ग प्रशस्त करती है। करुणा, प्रेम और श्रेष्ठ परम्पराओं का विकास भी शिक्षा के उद्देश्य हैं।

वे कहते थे कि जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता तब तक अच्छी शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती। उन्होंने अनेक वर्षोँ तक अध्यापन किया। एक आदर्श शिक्षक के सभी गुण उनमें विद्यमान थे। उनका कहना था कि शिक्षक उन्हीं लोगों को बनाया जाना चाहिये जो सबसे अधिक बुद्धिमान हों। शिक्षक को मात्र अच्छी तरह अध्यापन करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिये अपितु उसे अपने छात्रों का स्नेह और आदर भी अर्जित करना चाहिये। सम्मान शिक्षक होने भर से नहीं मिलता, उसे अर्जित करना पड़ता है।

उनकी मृत्यु १७ अप्रैल १९७५ को हुई थी ।
डॉ० राधाकृष्णन का जन्म तमिलनाडु के तिरूतनी ग्राम में, जो तत्कालीन मद्रास से लगभग 64 कि॰ मी॰ की दूरी पर स्थित है, 5 सितम्बर 1888 को हुआ था। जिस परिवार में उन्होंने जन्म लिया वह एक ब्राह्मण परिवार था। उनका जन्म स्थान भी एक पवित्र तीर्थस्थल के रूप में विख्यात रहा है। राधाकृष्णन के पुरखे पहले कभी 'सर्वपल्ली' नामक ग्राम में रहते थे और 18वीं शताब्दी के मध्य में उन्होंने तिरूतनी ग्राम की ओर निष्क्रमण किया था। लेकिन उनके पुरखे चाहते थे कि उनके नाम के साथ उनके जन्मस्थल के ग्राम का बोध भी सदैव रहना चाहिये। इसी कारण उनके परिजन अपने नाम के पूर्व 'सर्वपल्ली' धारण करने लगे थे।

डॉ० राधाकृष्णन एक ग़रीब किन्तु विद्वान ब्राह्मण की सन्तान थे। उनके पिता का नाम 'सर्वपल्ली वीरास्वामी' और माता का नाम 'सीताम्मा' था। उनके पिता राजस्व विभाग में काम करते थे। उन पर बहुत बड़े परिवार के भरण-पोषण का दायित्व था। वीरास्वामी के पाँच पुत्र तथा एक पुत्री थी। राधाकृष्णन का स्थान इन सन्ततियों में दूसरा था। उनके पिता काफ़ी कठिनाई के साथ परिवार का निर्वहन कर रहे थे। इस कारण बालक राधाकृष्णन को बचपन में कोई विशेष सुख प्राप्त नहीं हुआ।
राधाकृष्णन का बाल्यकाल तिरूतनी एवं तिरुपति जैसे धार्मिक स्थलों पर ही व्यतीत हुआ। उन्होंने प्रथम आठ वर्ष तिरूतनी में ही गुजारे। यद्यपि उनके पिता पुराने विचारों के थे और उनमें धार्मिक भावनाएँ भी थीं, इसके बावजूद उन्होंने राधाकृष्णन को क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशन स्कूल, तिरूपति में 1896-1900 के मध्य विद्याध्ययन के लिये भेजा। फिर अगले 4 वर्ष (1900 से 1904) की उनकी शिक्षा वेल्लूर में हुई। इसके बाद उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास में शिक्षा प्राप्त की। वह बचपन से ही मेधावी थे।

इन 12 वर्षों के अध्ययन काल में राधाकृष्णन ने बाइबिल के महत्त्वपूर्ण अंश भी याद कर लिये। इसके लिये उन्हें विशिष्ट योग्यता का सम्मान प्रदान किया गया। इस उम्र में उन्होंने वीर सावरकर और स्वामी विवेकानन्द का भी अध्ययन किया। उन्होंने 1902 में मैट्रिक स्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की और उन्हें छात्रवृत्ति भी प्राप्त हुई। इसके बाद उन्होंने 1904 में कला संकाय परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उन्हें मनोविज्ञान, इतिहास और गणित विषय में विशेष योग्यता की टिप्पणी भी उच्च प्राप्तांकों के कारण मिली। इसके अलावा क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास ने उन्हें छात्रवृत्ति भी दी। दर्शनशास्त्र में एम०ए० करने के पश्चात् 1916 में वे मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक नियुक्त हुए। बाद में उसी कॉलेज में वे प्राध्यापक भी रहे। डॉ० राधाकृष्णन ने अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से विश्व को भारतीय दर्शन शास्त्र से परिचित कराया। सारे विश्व में उनके लेखों की प्रशंसा की गयी।
उस समय मद्रास के ब्राह्मण परिवारों में कम उम्र में ही शादी सम्पन्न हो जाती थी और राधाकृष्णन भी उसके अपवाद नहीं रहे। 1903 में 16 वर्ष की आयु में ही उनका विवाह दूर के रिश्ते की बहन 'सिवाकामू' के साथ सम्पन्न हो गया। उस समय उनकी पत्नी की आयु मात्र 10 वर्ष की थी। अतः तीन वर्ष बाद ही उनकी पत्नी ने उनके साथ रहना आरम्भ किया। यद्यपि उनकी पत्नी सिवाकामू ने परम्परागत रूप से शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, लेकिन उनका तेलुगु भाषा पर अच्छा अधिकार था। वह अंग्रेज़ी भाषा भी लिख-पढ़ सकती थीं। 1908 में राधाकृष्णन दम्पति को सन्तान के रूप में पुत्री की प्राप्ति हुई। 1908 में ही उन्होंने कला स्नातक की उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की और दर्शन शास्त्र में विशिष्ट योग्यता प्राप्त की। शादी के 6 वर्ष बाद ही 1909 में उन्होंने कला में स्नातकोत्तर परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। इनका विषय दर्शन शास्त्र ही रहा। उच्च अध्ययन के दौरान वह अपनी निजी आमदनी के लिये बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का काम भी करते रहे। 1908 में उन्होंने एम० ए० की उपाधि प्राप्त करने के लिये एक शोध लेख भी लिखा। इस समय उनकी आयु मात्र बीस वर्ष की थी। इससे शास्त्रों के प्रति उनकी ज्ञान-पिपासा बढ़ी। शीघ्र ही उन्होंने वेदों और उपनिषदों का भी गहन अध्ययन कर लिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने हिन्दी और संस्कृत भाषा का भी रुचिपूर्वक अध्ययन किया।
शिक्षा का प्रभाव जहाँ प्रत्येक व्यक्ति पर निश्चित रूप से पड़ता है, वहीं शैक्षिक संस्थान की गुणवत्ता भी अपना प्रभाव छोड़ती है। क्रिश्चियन संस्थाओं द्वारा उस समय पश्चिमी जीवन मूल्यों को विद्यार्थियों के भीतर काफी गहराई तक स्थापित किया जाता था। यही कारण है कि क्रिश्चियन संस्थाओं में अध्ययन करते हुए राधाकृष्णन के जीवन में उच्च गुण समाहित हो गये। लेकिन उनमें एक अन्य परिवर्तन भी आया जो कि क्रिश्चियन संस्थाओं के कारण ही था। कुछ लोग हिन्दुत्ववादी विचारों को हेय दृष्टि से देखते थे और उनकी आलोचना करते थे। उनकी आलोचना को डॉ० राधाकृष्णन ने चुनौती की तरह लिया और हिन्दू शास्त्रों का गहरा अध्ययन करना आरम्भ कर दिया। डॉ० राधाकृष्णन यह जानना चाहते थे कि वस्तुतः किस संस्कृति के विचारों में चेतनता है और किस संस्कृति के विचारों में जड़ता है? तब स्वाभाविक अंतर्प्रज्ञा द्वारा इस बात पर दृढ़ता से विश्वास करना आरम्भ कर दिया कि भारत के दूरस्थ स्थानों पर रहने वाले ग़रीब तथा अनपढ़ व्यक्ति भी प्राचीन सत्य को जानते थे। इस कारण राधाकृष्णन ने तुलनात्मक रूप से यह जान लिया कि भारतीय आध्यात्म काफ़ी समृद्ध है और क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा हिन्दुत्व की आलोचनाएँ निराधार हैं। इससे इन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीय संस्कृति धर्म, ज्ञान और सत्य पर आधारित है जो प्राणी को जीवन का सच्चा सन्देश देती है।
डॉ० राधाकृष्णन ने यह भली भाँति जान लिया था कि जीवन बहुत ही छोटा है परन्तु इसमें व्याप्त खुशियाँ अनिश्चित हैं। इस कारण व्यक्ति को सुख-दुख में समभाव से रहना चाहिये। वस्तुतः मृत्यु एक अटल सच्चाई है, जो अमीर ग़रीब सभी को अपना ग्रास बनाती है तथा किसी प्रकार का वर्ग भेद नहीं करती। सच्चा ज्ञान वही है जो आपके अन्दर के अज्ञान को समाप्त कर सकता है। सादगीपूर्ण सन्तोषवृत्ति का जीवन अमीरों के अहंकारी जीवन से बेहतर है, जिनमें असन्तोष का निवास है। एक शान्त मस्तिष्क बेहतर है, तालियों की उन गड़गड़ाहटों से; जो संसदों एवं दरबारों में सुनायी देती हैं। वस्तुत: इसी कारण डॉ० राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के नैतिक मूल्यों को समझ पाने में सफल रहे, क्योंकि वे मिशनरियों द्वारा की गई आलोचनाओं के सत्य को स्वयं परखना चाहते थे। इसीलिए कहा गया है कि आलोचनाएँ परिशुद्धि का कार्य करती हैं। सभी माताएँ अपने बच्चों में उच्च संस्कार देखना चाहती हैं। इसी कारण वे बच्चों को ईश्वर पर विश्वास रखने, पाप से दूर रहने एवं मुसीबत में फँसे लोगों की मदद करने का पाठ पढ़ाती हैं। डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह भी जाना कि भारतीय संस्कृति में सभी धर्मों का आदर करना सिखाया गया है और सभी धर्मों के लिये समता का भाव भी हिन्दू संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। इस प्रकार उन्होंने भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान को समझा और उसके काफ़ी नज़दीक हो गये।
डॉ० राधाकृष्णन समूचे विश्व को एक विद्यालय मानते थे। उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता है। अत: विश्व को एक ही इकाई मानकर शिक्षा का प्रबन्धन करना चाहिए। ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में दिये अपने भाषण में डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था- "मानव को एक होना चाहिए। मानव इतिहास का संपूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति तभी सम्भव है जब देशों की नीतियों का आधार पूरे विश्व में शान्ति की स्थापना का प्रयत्न हो।" डॉ. राधाकृष्णन अपनी बुद्धि से परिपूर्ण व्याख्याओं, आनन्ददायी अभिव्यक्तियों और हल्की गुदगुदाने वाली कहानियों से छात्रों को मन्त्रमुग्ध कर देते थे। उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारने की प्रेरणा वह अपने छात्रों को भी देते थे। वह जिस भी विषय को पढ़ाते थे, पहले स्वयं उसका गहन अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गम्भीर विषय को भी वह अपनी शैली से सरल, रोचक और प्रिय बना देते थे।
1909 में 21 वर्ष की उम्र में डॉ० राधाकृष्णन ने मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज में कनिष्ठ व्याख्याता के तौर पर दर्शन शास्त्र पढ़ाना प्रारम्भ किया। यह उनका परम सौभाग्य था कि उनको अपनी प्रकृति के अनुकूल आजीविका प्राप्त हुई थी। यहाँ उन्होंने 7 वर्ष तक न केवल अध्यापन कार्य किया अपितु स्वयं भी भारतीय दर्शन और भारतीय धर्म का गहराई से अध्ययन किया। उन दिनों व्याख्याता के लिये यह आवश्यक था कि अध्यापन हेतु वह शिक्षण का प्रशिक्षण भी प्राप्त करे। इसी कारण 1910 में राधाकृष्णन ने शिक्षण का प्रशिक्षण मद्रास में लेना आरम्भ कर दिया। इस समय इनका वेतन मात्र 37 रुपये था। दर्शन शास्त्र विभाग के तत्कालीन प्रोफ़ेसर राधाकृष्णन के दर्शन शास्त्रीय ज्ञान से काफ़ी अभिभूत हुए। उन्होंने उन्हें दर्शन शास्त्र की कक्षाओं से अनुपस्थित रहने की अनुमति प्रदान कर दी। लेकिन इसके बदले में यह शर्त रखी कि वह उनके स्थान पर दर्शन शास्त्र की कक्षाओं में पढ़ा दें। तब राधाकृष्ण ने अपने कक्षा साथियों को तेरह ऐसे प्रभावशाली व्याख्यान दिये, जिनसे वे शिक्षार्थी भी चकित रह गये। इसका कारण यह था कि उनकी विषय पर गहरी पकड़ थी, दर्शन शास्त्र के सम्बन्ध में दृष्टिकोण स्पष्ट था और व्याख्यान देते समय उन्होंने उपयुक्त शब्दों का चयन भी किया था। 1912 में डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन की "मनोविज्ञान के आवश्यक तत्व" शीर्षक से एक लघु पुस्तिका भी प्रकाशित हुई जो कक्षा में दिये गये उनके व्याख्यानों का संग्रह था। इस पुस्तिका के द्वारा उनकी यह योग्यता प्रमाणित हुई कि "प्रत्येक पद की व्याख्या करने के लिये उनके पास शब्दों का अतुल भण्डार तो है ही, उनकी स्मरण शक्ति भी अत्यन्त विलक्षण है।"

जब डॉ० राधाकृष्णन यूरोप एवं अमेरिका प्रवास से पुनः भारत लौटे तो यहाँ के विभिन्न विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद उपाधियाँ प्रदान कर उनकी विद्वत्ता का सम्मान किया। 1928 की शीत ऋतु में इनकी प्रथम मुलाक़ात पण्डित जवाहर लाल नेहरू से उस समय हुई, जब वह कांग्रेस पार्टी के वार्षिक अधिवेशन में सम्मिलित होने के लिये कलकत्ता आए हुए थे। यद्यपि सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय शैक्षिक सेवा के सदस्य होने के कारण किसी भी राजनीतिक संभाषण में हिस्सेदारी नहीं कर सकते थे, तथापि उन्होंने इस वर्जना की कोई परवाह नहीं की और भाषण दिया। 1929 में इन्हें व्याख्यान देने हेतु 'मानचेस्टर विश्वविद्यालय' द्वारा आमन्त्रित किया गया। इन्होंने मानचेस्टर एवं लन्दन में कई व्याख्यान दिये। इनकी शिक्षा सम्बन्धी उपलब्धियों के दायरे में निम्नवत संस्थानिक सेवा कार्यों को देखा जाता है-

सन् १९३१ से ३६ तक आन्ध्र विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर रहे।
ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय में १९३६ से १९५२ तक प्राध्यापक रहे।
कलकत्ता विश्वविद्यालय के अन्तर्गत आने वाले जॉर्ज पंचम कॉलेज के प्रोफेसर के रूप में 1937 से 1941 तक कार्य किया।
सन् १९३९ से ४८ तक काशी हिन्दू विश्‍वविद्यालय के चांसलर रहे।
१९५३ से १९६२ तक दिल्ली विश्‍वविद्यालय के चांसलर रहे।
१९४६ में युनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
 सर्वपल्ली राधाकृष्णन की ही प्रतिभा थी कि स्वतन्त्रता के बाद इन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वे 1947 से 1949 तक इसके सदस्य रहे। इसी समय वे कई विश्वविद्यालयों के चेयरमैन भी नियुक्त किये गये। अखिल भारतीय कांग्रेसजन यह चाहते थे कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी संविधान सभा के सदस्य बनाये जायें। जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि राधाकृष्णन के संभाषण एवं वक्तृत्व प्रतिभा का उपयोग 14 - 15 अगस्त, 1947 की रात्रि को उस समय किया जाये जब संविधान सभा का ऐतिहासिक सत्र आयोजित हो। राधाकृष्णन को यह निर्देश दिया गया कि वे अपना सम्बोधन रात्रि के ठीक 12 बजे समाप्त करें। क्योंकि उसके पश्चात ही नेहरू जी के नेतृत्व में संवैधानिक संसद द्वारा शपथ ली जानी थी।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ऐसा ही किया और ठीक रात्रि 12 बजे अपने सम्बोधन को विराम दिया। पण्डित नेहरू और राधाकृष्णन के अलावा किसी अन्य को इसकी जानकारी नहीं थी। आज़ादी के बाद उनसे आग्रह किया गया कि वह मातृभूमि की सेवा के लिये विशिष्ट राजदूत के रूप में सोवियत संघ के साथ राजनयिक कार्यों की पूर्ति करें। इस प्रकार विजयलक्ष्मी पंडित का इन्हें नया उत्तराधिकारी चुना गया। पण्डित नेहरू के इस चयन पर कई व्यक्तियों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि एक दर्शनशास्त्री को राजनयिक सेवाओं के लिए क्यों चुना गया? उन्हें यह सन्देह था कि डॉक्टर राधाकृष्णन की योग्यताएँ सौंपी गई ज़िम्मेदारी के अनुकूल नहीं हैं। लेकिन बाद में सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह साबित कर दिया कि मॉस्को में नियुक्त भारतीय राजनयिकों में वे सबसे बेहतर थे। वे एक गैर परम्परावादी राजनयिक थे। जो मन्त्रणाएँ देर रात्रि होती थीं, वे उनमें रात्रि 10 बजे तक ही भाग लेते थे, क्योंकि उसके बाद उनके शयन का समय हो जाता था। जब राधाकृष्णन एक शिक्षक थे, तब भी वे नियमों के दायरों में नहीं बँधे थे। कक्षा में यह 20 मिनट देरी से आते थे और दस मिनट पूर्व ही चले जाते थे। इनका कहना था कि कक्षा में इन्हें जो व्याख्यान देना होता था, वह 20 मिनट के पर्याप्त समय में सम्पन्न हो जाता था। इसके उपरान्त भी यह विद्यार्थियों के प्रिय एवं आदरणीय शिक्षक बने रहे।
1952 में सोवियत संघ से आने के बाद डॉक्टर राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति निर्वाचित किये गये। संविधान के अंतर्गत उपराष्ट्रपति का नया पद सृजित किया गया था। नेहरू जी ने इस पद हेतु राधाकृष्णन का चयन करके पुनः लोगों को चौंका दिया। उन्हें आश्चर्य था कि इस पद के लिए कांग्रेस पार्टी के किसी राजनीतिज्ञ का चुनाव क्यों नहीं किया गया। उपराष्ट्रपति के रूप में राधाकृष्णन ने राज्यसभा में अध्यक्ष का पदभार भी सम्भाला। सन 1952 में वे भारत के उपराष्ट्रपति बनाये गये। बाद में पण्डित नेहरू का यह चयन भी सार्थक सिद्ध हुआ, क्योंकि उपराष्ट्रपति के रूप में एक गैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति ने सभी राजनीतिज्ञों को प्रभावित किया। संसद के सभी सदस्यों ने उन्हें उनके कार्य व्यवहार के लिये काफ़ी सराहा। इनकी सदाशयता, दृढ़ता और विनोदी स्वभाव को लोग आज भी याद करते हैं।
 शिक्षक दिवसहमारे देश के द्वितीय किंवा अद्वितीय राष्ट्रपति डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिन (5 सितम्बर) को प्रतिवर्ष 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाया जाता है। इस दिन समस्त देश में भारत सरकार द्वारा श्रेष्ठ शिक्षकों को पुरस्कार भी प्रदान किया जाता है।
यद्यपि उन्हें १९३१ में ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा "सर" की उपाधि प्रदान की गयी थी लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात उसका औचित्य डॉ० राधाकृष्णन के लिये समाप्त हो चुका था। जब वे उपराष्ट्रपति बन गये तो स्वतन्त्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेंद्र प्रसाद जी ने १९५४ में उन्हें उनकी महान दार्शनिकता व शैक्षिक उपलब्धियों के लिये देश का सर्वोच्च अलंकरण भारत रत्न प्रदान किया।

Sunday 16 December 2012

सर्व प्रथम राष्ट्रपति डा, राजेंद्र प्रसाद

 आज आप सबको मै अपने देश के प्रथम राष्ट्र पति जी के विषय मे कुछ जानकारी देती हूँ ।




डा. राजेंद्र प्रसाद
डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद  भारत के प्रथम राष्ट्रपति थे। वे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से थे एवं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में एक प्रमुख भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय संविधान के निर्माण में भी अपना प्रमुख योगदान दिया था जिसकी परिणति २६ जनवरी १९५० को भारत के एक गणतंत्र के रुप में हुई थी। राष्ट्रपति होने के अतिरिक्त उन्होंने स्वाधीन भारत में केन्द्रीय मंत्री के रुप में भी थोड़े समय के लिए काम किया था। पूरे देश में अत्यंत लोकप्रिय होने के कारण उन्हें राजेन्द्र बाबू या "देशरत्न" कहकर पुकारा जाता था। पूर्वज बाबू राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वज मूलरूप से कुआँगांव, अमोढ़ा (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। यह एक कायस्थ परिवार था। कुछ कायस्थ परिवार इस स्थान को छोड़ कर बलिया जा बसे थे। कुछ परिवारों को बलिया भी रास नहीं आया, वे वहां से बिहार के जिला सारन के एक गांव जीरादेई में आ बसे थे। इन परिवारों में कुछ शिक्षित लोग भी थे। इन्हीं परिवारों में राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वजों का भी परिवार भी था। जीरादेई के पास ही एक छोटी सी रियासत थी - हथुआ। चूंकि राजेन्द्र बाबू के दादा पढ़े-लिखे थे, अतः उन्हें हथुआ रियासत की दीवानी मिल गई पच्चीस-तीस सालों तक वे उस रियासत के दीवान रहे। उन्होंने स्वयं भी कुछ जमीन खरीद ली थी। राजेन्द्र बाबू के पिता श्री महादेव सहाय इस जमींदारी की देखभाल करते थे। राजेन्द्र प्रसाद जी के चाचा श्री जगदेव सहाय भी घर पर ही रहकर जमींदारी का काम देखते थे। जगदेव सहाय जी की अपनी कोई संतान नहीं थी। अपने पांच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे, इसलिए पूरे परिवार में सबके प्यारे थे।
उनके चाचा के चूंकि कोई संतान नहीं थी, इसलिए वे राजेन्द्र प्रसाद को अपने पुत्र की भांति ही समझते थे। दादा, पिता और चाचा के लाड़-प्यार में ही राजेन्द्र बाबू का पालन-पोषण हुआ। दादी और माँ का भी उन पर पूर्ण प्रेम बरसता था।

बचपन में राजेन्द्र बाबू जल्दी सो जाते थे और सुबह जल्दी उठ जाते, तो मां को भी जगा लिया करते और फिर उन्हें सोने नहीं देते। अतः मां भी उन्हें प्रभाती सुनाती, रामायण और महाभारत की कहानियां और भजन, कीर्तन आदि सुनातीं। 
राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे, एवं उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थी।पाँच वर्ष की उम्र में ही राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से फारसी में शिक्षा शुरू किया। उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए। राजेंद्र बाबू का विवाह उस समय की परिपाटी के अनुसार बाल्य काल में ही, लगभग 13 वर्ष की उम्र में, राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने पटना के टी के घोष अकादमी से अपनी पढाई जारी रखी। उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी रहा और उससे उनके अध्ययन अथवा अन्य कार्यों में कोई रुकावट नहीं पड़ी।
लेकिन वे जल्द ही जिला स्कूल छपरा चले गये और वहीं से 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी। उस प्रवेश परीक्षा में उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। सन् 1902 में उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उनकी प्रतिभा ने गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार-विभूति डॉक्टर अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ विधि परास्नातक (एलएलएम) की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्टरेट की उपाधि भी हासिल की। राजेन्द्र बाबू कानून की अपनी पढाई का अभ्यास भागलपुर, बिहार मे किया करते थे।
 यद्यपि राजेंद्र बाबू की पढ़ाई फारसी और उर्दू से शुरु हुई थी तथापि वी. ए. में उन्होंने हिंदी ले ली थी। वे अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, फ़ारसी तथा बंगाली भाषा और साहित्य से पूरे परिचित तथा इन भाषाओं में वे सरलता से प्रभावकारी व्याख्यान भी दे सकते थे। गुजराती का व्यावहारिक ज्ञान भी उन्हें था। एम. एल. परीक्षा के लिए हिंदू कानून का उन्होंने संस्कृत ग्रंथों से ही अध्ययन किया था। हिंदी के प्रति उनका प्रेम अगाध था। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं जैसे भारतमित्र, भारतोदय, कमला आदि में उनके लेख छपते थे। उनके निबंध सुरुचिपूर्ण तथा प्रभावकारी होते थे। 1912 ई. में जब अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन कलकत्ते में हुआ था तब स्वागतकारिणी समिति के वे प्रधान मंत्री थे। 1920 ई. में जब अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का 10वाँ अधिवेशन पटने में हुआ था तब भी वे प्रधान मंत्री थे। 1923 ई. में जब सम्मेलन का अधिवेशन कोकोनाडा में होने वाला था तब वे उसके अध्यक्ष मनोनीत हुए थे पर रुग्णता के कारण वे उसमें उपस्थित न हो से। उनका भाषण श्री जमनालाल बजाज ने पढ़ा था। 1926 ई. में वे बिहार प्रदेशीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के और 1927 ई. में उत्तर प्रदेशीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति थे। हिंदी में इनकी आत्मकथा बड़ी प्रसिद्ध पुस्तक है। अंग्रेजी में भी इन्होंने कुछ पुस्तकें लिखी हैं। इन्होंने हिंदी के 'देश' और अंग्रेजी के 'पटना लॉ वीकली' का भी संपादन किया था।
 स्वतंत्रता आंदोलन के दौरानभारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनका पदार्पण वक़ील के रूप में अपने कैरियर की शुरुआत करते ही हो गया था। चम्पारण में गाँधीजी ने एक तथ्य अन्वेषण समूह भेजे जाते समय उनसे अपने स्वयंसेवकों के साथ आने का अनुरोध किया था। राजेन्द्र बाबू महात्मा गाँधी की निष्ठा, समर्पण एवं साहस से बहुत प्रभावित हुए और 1921 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेटर का पदत्याग कर दिया। गाँधीजी ने जब विदेशी संस्थाओं के बहिष्कार की अपील की थी तो उन्होंने अपने पुत्र मृत्युंजय प्रसाद, जो एक अत्यंत मेधावी छात्र थे, उन्हें कोलकाता विश्वविद्यालय से हटाकर बिहार विद्यापीठ में दाखिल करवाया था। उन्होंने "सर्चलाईट" और "देश" जैसी पत्रिकाओं में इस विषय पर बहुत से लेख लिखे थे और इन अखबारों के लिए अक्सर वे धन जुटाने का काम भी करते थे। 1914 में बिहार और बंगाल मे आई बाढ में उन्होंने काफी बढचढ कर सेवा-कार्य किया था। बिहार के 1934 के भूकंप के समय राजेन्द्र बाबू कारावास में थे। जेल से दो वर्ष में छूटने के पश्चात वे भूकंप पीड़ितों के लिए धन जुटाने में तन-मन से जुट गये और उन्होंने वायसराय के जुटाये धन-राशि से कहीं अधिक अपने व्यक्तिगत प्रयासों से जमा किया। सिंध और क्वेटा के भूकंप के समय भी उन्होंने कई राहत-शिविरों का इंतजाम अपने हाथों मे लिया था।
1934 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गये। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने पर कांग्रेस अध्यक्ष का पदभार उन्होंने एक बार पुन: 1939 में संभाला था।
भारत के स्वतंत्र होने के बाद संविधान लागू होने पर उन्होंने देश के पहले राष्ट्रपति का पदभार संभाला। राष्ट्रपति के तौर पर उन्होंने कभी भी अपने संवैधानिक अधिकारों में प्रधानमंत्री या कांग्रेस को दखलअंदाजी का मौका नहीं दिया और हमेशा स्वतंत्र रूप से कार्य करते रहे। हिंदू अधिनियम पारित करते समय उन्होंने काफी कड़ा रूख अपनाया था। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने कई ऐसे दृष्टांत छोड़े जो बाद में उनके परवर्तियों के लिए मिसाल के तौर पर काम करती रही।
भारतीय संविधान के लागू होने से एक दिन पहले 25 जनवरी 1950 को उनकी बहन भगवती देवी का निधन हो गया, लेकिन वे भारतीय गणराज्य के स्थापना की रस्म के बाद ही दाह संस्कार में भाग लेने गये। 12 वर्षों तक राषट्रपति के रूप में कार्य करने के पश्चात उन्होंने 1962 में अपने अवकाश की घोषणा की। बाद के दिनों में उन्हें भारत सरकार द्वारा दिया जानेवाला सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा गया
राजेंद्र बाबू की वेशभूषा बड़ी सरल थी। उनके चेहरे मोहरे पता नहीं लगता था कि वे इतने प्रतिभासंपन्न और उच्च व्यक्तित्ववाले सज्जन हैं। देखने में वे सामान्य किसान जैसे लगते थे।

जैसा इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डाक्टर ऑव ला की सम्मानित उपाधि प्रदान करते समय कहा गया था- 'बाबू राजेंद्रप्रसाद ने अपने जीवन में सरल, नि:स्वार्थ और निस्व सेवा का ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत किया है। जब वकील के व्यवसाय में चरम उत्कर्ष की उपलब्धि दूर नहीं रह गई थी, इन्हें राष्ट्रीय कार्य के लिए आह्वान मिला और उन्होंने व्यक्तिगत भावी उन्नति की सभी संभावनाओं को त्यागकर गाँवों में गरीबों तथा दीन कृषकों के बीच काम करना स्वीकार किया'। सरोजिनी नायडू ने लिखा था, 'उनकी असाधारण प्रतिभा, उनके स्वभाव का अनोखा माधुर्य, उनके चरित्र की विशालता और अति त्याग के गुण ने शायद उन्हें हमारे सभी नेताओं से अधिक व्यापक और व्यक्तिगत रूप से प्रिय बना दिया है। गाँधी जी के निकटतम शिष्यों में उनका वही स्थान है जो ईसा मसीह के निकट सेंट जॉन का था।'
 सितंबर 1962 में अवकाश ग्रहण करते ही उनकी पत्नी राजवंशी देवी का निधन हो गया। मृत्यु के एक महीने पहले अपने पति को संबोधित पत्र में राजवंशी देवी ने लिखा था, "मुझे लगता है मेरा अंत निकट है, कुछ करने की शक्ति का अंत, संपूर्ण अस्तित्व का अंत". राम, राम, राम शब्दों के उच्चारण के साथ उनका अंत 28 फरवरी 1963 को पटना के सदाक़त आश्रम आश्रम में हुआ।
उनकी वंशावली को जीवित रखने का कार्य उनके परपौत्र अशोक जाहन्वी प्रसाद कर रहे हैं। वे पेशे से एक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त वैज्ञानिक एवं मनोचिकित्सक हैं और उन्होंने बाई-पोलर डिसाऑर्डर की चिकित्सा में लीथियम के सुरक्षित विकल्प के रूप में सोडियम वैलप्रोरेट की खोज की थी। श्री प्रसाद प्रतिष्ठित अमेरिकन अकैडमी ऑफ आर्ट्स ऐंड साईंस के सदस्य भी हैं।
उन्होंने अपनी आत्मकथा (१९४६) के अतिरिक्त कई पुस्तकें भी लिखी जिनमें बापू के कदमों में (१९५४), इंडिया डिवाइडेड (१९४६), सत्याग्रह ऐट चंपारण (१९२२), गांधीजी की देन, भारतीय संस्कृति, खादी का अर्थशास्त्र इत्यादि उल्लेखनीय हैं।
 सन 1962 में अवकाश प्राप्त करने पर राष्ट्र ने उन्हें "भारत रत्‍न" की सर्वश्रेष्ठ उपाधि से सम्मानित किया। यह उस पुत्र के लिये कृतज्ञता का प्रतीक था जिसने अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर आधी शताब्दी तक अपनी मातृभूमि की सेवा की थी।
अपने जीवन के आख़िरी महीने बिताने के लिये उन्होंने पटना के निकट सदाकत आश्रम चुना। यहाँ पर 28 फ़रवरी 1963 में उनके जीवन की कहानी समाप्त हुई। यह कहानी थी श्रेष्ठ भारतीय मूल्यों और परम्परा की चट्टान सदृश्य आदर्शों की। हमको इन पर गर्व है और ये सदा राष्ट्र को प्रेरणा देते रहेंगे।

फिर मिलेंगे अन्य एक और महापुरुष की बात लेकर ।

Friday 14 December 2012

ध्यान रखने योग्य

प्यारे बच्चों आज कुछ महापुरुषों के महान चरित्र के विषय मे आपको बताती हूँ जो तुम्हें भी प्रेरणा देंगे ऐसी मुझे आशा है ।



        
                                                                         रामकृष्ण  परम हंस

बंगाल की धरती ने जिन संस्कार सम्पन्न महापुरुषों को जन्म दिया है , राम कृष्ण परम हंस उच्च कोटि के संत हुए है । राम कृष्ण का जन्म हुगली जिले के कामारपुकुर गाँव मे  खुदीराम  चट्टोपाध्याय नामक श्रद्धालु  ब्राम्हण के यहाँ  हुआ था । उनकी माँ च्ंद्रमणि बहुत धार्मिक महिला थी । इन्ही के यहाँ 17 फरवरी 1836 को रामकृष्ण परमहंस का जन्म हुआ था । रामकृष्ण का बचपन का नाम गदाधर था । वे कुशाग्र बुद्धि के बालक थे । वे बहुत अच्छा गाते भी थे । अध्यापक उन्हे बहुत प्यार करते थे । वे काली के परम भक्त थे । इनका विवाह शारदामणि से हुआ जो आगे चल कर शरदादेवी के नाम से विख्यात हुईं । परमहंस जी ने उनसे पत्नी जैसे संबंध न रखे बल्कि उन्हे भी पूज्या माना । रामकृष्ण उच्चकोटि के  भक्त थे साथ  ही वे समाजसुधारक और देशप्रेमी भी थे । जिस समय वे कार्य क्षेत्र मे आगे आए उस समय भारत मे लोग अपनी मर्यादा को त्याग कर अङ्ग्रेज़ी शिक्षा और संस्कृति को अपनाने मे लगे थे । स्वामी जी ने भारतीय संस्कृति के प्रति  देश के लोगों  ध्यान आकर्षित कर उनमे देश प्रेम जाग्रत किया । स्वामी जी के अंदर अहंकार लेशमात्र भी नहीं था । वे बड़ी सरल बंगला मे उपदेश देते थे , उनके उपदेशों का संग्रह रामकृष्ण आश्रम द्वारा किया गया है । स्वामी जी ने 51 वर्ष की उम्र तक देशवासियों का मार्ग दर्शन करने के बाद  अगस्त 1886 मे प्राण त्याग किया ।

           बाल गंगाधरतिलक    
                                                                                                          


19 वीं शताब्दी के आरंभ  मे छोटे छोटे स्वतंत्र   देशी राज्य आपस मे लड़कर कमजोर हो गए थे । दक्षिण मे मराठा राज्य भी कमजोर हो गया था । देश आर्थिक , राजनीतिक और प्रशासनिक रूप से अंग्रेजों का उपनिवेश बन चुका था । ऐसे वातावरण मे महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले मे 23 जुलाई 1856 ईसवी को बालगंगाधर तिलक का जन्म गंगाधर पंत नामक गरीब ब्राम्ह्ण के घर मे हुआ था। उनके पिता संस्कृत के  विद्वान थे । तिलक मे भी विलक्षण प्रतिभा थी । खेल खेल ही मे  इन्होने गणित और संसकृत की इतनी शिक्षा प्राप्त कर ली कि पाठशाला जाने पर अध्यापकों से कुछ भी सीखने की आवश्यकता ही न  रही । 
इनहोने डेक्कन कालेज से बी ए और बम्बई से एल एल बी की परीक्षा उत्तीर्ण की । शिक्षा समाप्ति के बाद आपने संसार के करी क्षेत्र मे उतर कर अनेक कार्य किए । चौदह वर्ष की आयु मे ही आपका विवाह सत्यभामा के साथ कर दिया गया । तिलक को बचपन से ही गीता से अगाध प्रेम था ।  आपने मांडले जेल मे ही  समय सदुपयोग करते हुए मराठी भाषा मे गीता का सरल भाष्य "गीता रहस्य " तैयार किया । इसमे आपके प्रकांड पांडित्य का प्रदर्शन मिलता है । तिलक को लोकमान्य की पदवी इसलिए मिली थी कि उन्होने लोकसाधारण की व्यथा को समझा था । उसके उपचार के लिए अथक परिश्रम किया । तिलक ने ही सर्व प्रथम देश को " स्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है "। यह महामंत्र सिखाया था । अंत समय मे आप ज्वर से पीड़ित रहे थे तथा 31 जुलाई 1920 को आपका स्वर्गवास हो गया । 


अभी इतना ही फिर मिलेंगे कुछ और महापुरुषों के बारे मे जानकारी लेकर ।


15/12/2012

आज आपको गुरु नानक देव जी विषय मे बताती हूँ ।

पंद्रहवीं शताब्दी मे गुरु नानक का आविर्भाव हुआ । उनके पिता का नाम बेदी कालू चंद पटवारी और माता का नाम त्रप्ता देवी था । कार्तिक पुर्णिमा के दिन पंजाब के तलवंडी गाँव मे नानक का जन्म हुआ । बचपन से नानक का ध्यान साधुओं के साथ लगा रहता था । उनकी पत्नी का नाम सुलक्षणी देवी था । उनके दो पुत्र हुए , उनके नाम श्री चन्द्र और लक्ष्मीदास थे । परंतु संसार मे नानक का मन रमा नहीं । नानक देव जी ने भारत के सभी तीर्थ स्थानो का भ्रमण किया , कई जगहों पर नानक जी ने धर्मशालाए बनवाई । अफगानिस्तान , ईरान इत्यादि जगहों पर जाकर उन्होने अपने विचारों का उपदेश दिया । कई मुसलमान व्यक्ति भी नानक जी के शिष्य हुए । उनके  अनुयायी ग्रंथसाहब को बड़ी श्रद्धा से पढ़ते है उसमे गुरु जी की वाणी बड़े प्रमाण मे संग्रहीत है ।   इस धर्मग्रंथ मे कबीर , रविदास , मीराबाई,  नामदेव, आदि महान संतों के काव्य संकलित किए गए है  ।


चैतन्य महाप्रभु :-

 चैतन्य महाप्रभु का जन्म विक्रम  संवत 1542  मे होली की पुर्णिमा के दिन पश्चिम बंगाल के नवद्वीप नामक गाँव मे हुआ था ।

उनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्रा और माता का नाम शची देवी था । बालक का नाम विशंभर रखा गया , प्यार से माता पिता इन्हे निमाई कहते थे । चैतन्य ने लड़कों को पढाने के लिए एक पाठशाला खोली , विध्यार्थियों को निमाई बड़े लगन और मेहनत से पढ़ाते थे और मित्रवत व्यवहार करते थे ।
 अपनी माता के आग्रह पर उन्होने पंडित वल्लभाचर्य की पुत्री लक्ष्मी देवी से विवाह कर लिया । दुर्भाग्यवश इनकी पत्नी की अल्प समय मे ही मृत्यु हो गई । अपनी आयु के चौबीस वर्ष तक ये ग्रहस्थाश्रमी रहे । इनके गुरु सन्यासी ईश्वरपुरी थे ,जिनहोने इनके अंदर कृष्ण भक्ति की अलख जगाई । वे बड़े ही भक्ति भाव से मगन होकर कृष्ण के भजन गाकर लोगों मे भक्ति की भावना भरने लगे। गौर वर्ण होने के कारण लोग इन्हे गौरांग भी कहते थे।
 जगन्नाथ पुरी मे आज भी उनका मठ विध्यमान है । अड़तालीस वर्ष की आयु मे रथ यात्रा के दिन उनकी जीवन लीला समाप्त हो गई । उनका शरीर तो चला गया परंतु उनका नाम आज भी जीवित है । उन्होने भक्ति जो धारा बहाई वह कभी नहीं सूखेगी हमेशा लोगों पवित्र करती रहेगी ।

पंडित मदन मोहन मालवीय :-
इनका जन्म 25 दिसंबर , 1861 को इलाहाबाद मे पंडित ब्रज नाथ चतुर्वेदी के घर मे हुआ था । इनकी माता भुना देवी धार्मिक और दयावती महिला थी । मालवीय जी पर इनके माता पिता के गुणों का विशेष प्रभाव पड़ा । इनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई । आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण आप बी ए से आगे न पढ़ सके और इलाहाबाद के जिला स्कूल मे अध्यापक हो गए , जहां तीस साल तक कार्य किया । 25 वर्ष की अल्पायु मे ही इनकी ख्याति दूर दूर तक फैल गई । इनकी वाणी मे बड़ा ओज था । जब वे भाषण करते तो लोगो पर जादू सा हो जाता था । मालवीय जी ने बड़े परिश्रम से न्यायालय मे स्थान दिलाया ।राष्ट्र भाषा के प्रचार और प्रसार के लिए मालवीय जी ने नागरीय प्रचारिणी सभा और हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की । आप शिक्षा को  बहुत अधिक महत्व देते थे और शिक्षा के माध्यम से समाज के स्तर को ऊंचा उठाना चाहते थे । आपके बहुत प्रयासों के कारण ही काशी हिन्दू विश्व विद्यालय की नींव राखी जा सकी । जबकि आपके पास पैसे नहीं थे ।इस कम को पूरा करने के लिए आपने लोगो से  मदद भी मांगी और पर्याप्त सहयोग भी प्राप्त किया । आप लंबे समय तक यहाँ के कुलपति भी रहे । आपके परिश्रम का फल यह हुआ कि काशी हिन्दू विश्व विद्यालय का नाम पूरे विश्व मे प्रसिद्ध हुआ । 1946 मे इस महान शिक्षाशास्त्री  का देहावसान हो गया । परंतु काशी हिन्दू विश्व विद्यालय के कारण उनका नाम अमर हो गया ।

आगे फिर मिलेंगे कुछ  और अन्य महापुरुषों के विषय मे जानकारी लेकर ।